आरटीई की राह में अभी भी कम नहीं चुनौतियां
छह से चौदह साल तक के बच्चों को अनिवार्य व मुफ्त पढ़ाई के लिए शिक्षा का अधिकार कानून के अमल के दो साल बाद भी चुनौतियां कम नहीं हैं। उसे लेकर खुद सरकार को पसीना छूट रहा है। इस बीच, सुप्रीम कोर्ट ने गैर सरकारी व सरकार से सहायता न लेने वाले स्कूलों में भी गरीब बच्चों के लिए 25 प्रतिशत दाखिले की राह खोल दी है। शिक्षा का अधिकार कानून के मुताबिक प्राइमरी स्तर पर एक शिक्षक पर 30 बच्चों को पढ़ाने का जिम्मा आदर्श स्थिति है, लेकिन कानून पर अमल के दो साल बाद भी देश के नौ प्रतिशत स्कूल महज एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। जबकि स्कूलों में यह औसत अभी भी 1:45 पर टिका हुआ है। कानून पूरी तरह योग्य व प्रशिक्षित शिक्षकों का प्रावधान करता है, लेकिन 20 प्रतिशत शिक्षक जरूरी मानकों पर खरे ही नहीं उतरते। इसी तरह प्राइमरी की एक कक्षा में 30 बच्चे होने चाहिए, लेकिन यह स्थिति भी अभी 37 पर टिकी हुई है। स्कूलों में रैम्प होना जरूरी है, जबकि 50 प्रतिशत में यह नहीं है। खेल का मैदान भी होना लाजिमी है, 45 प्रतिशत में है ही नहीं। इस सबसे भी बड़ी बात हर स्कूल में पीने के पानी की व्यवस्था होनी ही चाहिए। अटपटा लग सकता है, लेकिन सात प्रतिशत स्कूल इस बेहद जरूरी सुविधा से महरूम हैं। कानून कहता है कि कोई बच्चा फेल नहीं किया जाएगा। स्कूलों के सामने यह चुनौती तो है ही, लेकिन सारी कोशिशों के बावजूद बीच में पढ़ाई छोड़ने की स्थिति बरकरार है। लगभग सात प्रतिशत बच्चे अब भी बीच में पढ़ाई छोड़ देते हैं। योग्य व शिक्षकों की समस्या भी सरकार के लिए एक अहम चुनौती बनी हुई है। सिर्फ शिक्षा का अधिकार कानून के अमल की रोशनी में ही सवा पांच लाख अतिरिक्त शिक्षकों की जरूरत है। दूसरी तरफ प्रारंभिक शिक्षा में कार्यरत कुल शिक्षकों में से 7.74 लाख योग्य व प्रशिक्षित ही नहीं हैं। 5.23 लाख शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। शिक्षा का अधिकार कानून हर स्कूल में शौचालयों की समुचित व्यवस्था का प्रावधान करता है। स्थिति यह है कि 16 प्रतिशत स्कूलों में यह है ही नहीं। कानून के अमल में राज्यों की उदासीनता का आलम यह है कि अभी तक सिर्फ 29 राज्यों पढ़ाई के लिए न्यूनतम दिन तय किये हैं। सिर्फ 31 राज्यों ने तय किया कि कोई बच्चा फेल नहीं किया जाएगा। प्रारंभिक शिक्षा को एक से आठवीं (आठ साल) तक के क्रम में रखना है। 28 राज्यों ने ही इसका प्रावधान किया है। dainik jagran 15/4/12
छह से चौदह साल तक के बच्चों को अनिवार्य व मुफ्त पढ़ाई के लिए शिक्षा का अधिकार कानून के अमल के दो साल बाद भी चुनौतियां कम नहीं हैं। उसे लेकर खुद सरकार को पसीना छूट रहा है। इस बीच, सुप्रीम कोर्ट ने गैर सरकारी व सरकार से सहायता न लेने वाले स्कूलों में भी गरीब बच्चों के लिए 25 प्रतिशत दाखिले की राह खोल दी है। शिक्षा का अधिकार कानून के मुताबिक प्राइमरी स्तर पर एक शिक्षक पर 30 बच्चों को पढ़ाने का जिम्मा आदर्श स्थिति है, लेकिन कानून पर अमल के दो साल बाद भी देश के नौ प्रतिशत स्कूल महज एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। जबकि स्कूलों में यह औसत अभी भी 1:45 पर टिका हुआ है। कानून पूरी तरह योग्य व प्रशिक्षित शिक्षकों का प्रावधान करता है, लेकिन 20 प्रतिशत शिक्षक जरूरी मानकों पर खरे ही नहीं उतरते। इसी तरह प्राइमरी की एक कक्षा में 30 बच्चे होने चाहिए, लेकिन यह स्थिति भी अभी 37 पर टिकी हुई है। स्कूलों में रैम्प होना जरूरी है, जबकि 50 प्रतिशत में यह नहीं है। खेल का मैदान भी होना लाजिमी है, 45 प्रतिशत में है ही नहीं। इस सबसे भी बड़ी बात हर स्कूल में पीने के पानी की व्यवस्था होनी ही चाहिए। अटपटा लग सकता है, लेकिन सात प्रतिशत स्कूल इस बेहद जरूरी सुविधा से महरूम हैं। कानून कहता है कि कोई बच्चा फेल नहीं किया जाएगा। स्कूलों के सामने यह चुनौती तो है ही, लेकिन सारी कोशिशों के बावजूद बीच में पढ़ाई छोड़ने की स्थिति बरकरार है। लगभग सात प्रतिशत बच्चे अब भी बीच में पढ़ाई छोड़ देते हैं। योग्य व शिक्षकों की समस्या भी सरकार के लिए एक अहम चुनौती बनी हुई है। सिर्फ शिक्षा का अधिकार कानून के अमल की रोशनी में ही सवा पांच लाख अतिरिक्त शिक्षकों की जरूरत है। दूसरी तरफ प्रारंभिक शिक्षा में कार्यरत कुल शिक्षकों में से 7.74 लाख योग्य व प्रशिक्षित ही नहीं हैं। 5.23 लाख शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। शिक्षा का अधिकार कानून हर स्कूल में शौचालयों की समुचित व्यवस्था का प्रावधान करता है। स्थिति यह है कि 16 प्रतिशत स्कूलों में यह है ही नहीं। कानून के अमल में राज्यों की उदासीनता का आलम यह है कि अभी तक सिर्फ 29 राज्यों पढ़ाई के लिए न्यूनतम दिन तय किये हैं। सिर्फ 31 राज्यों ने तय किया कि कोई बच्चा फेल नहीं किया जाएगा। प्रारंभिक शिक्षा को एक से आठवीं (आठ साल) तक के क्रम में रखना है। 28 राज्यों ने ही इसका प्रावधान किया है। dainik jagran 15/4/12