तो दोगुनी होती आवेदकों की संख्या
इलाहाबाद : शिक्षक भर्ती मामले में विवि प्रशासन ने उच्च न्यायालय के निर्देश के बाद भले ही अपनी रही सही इज्जत बचाने के लिए अपने विज्ञापन में संशोधन का प्रस्ताव पारित करवा लिया हो, लेकिन एक यक्ष प्रश्न तो अभी भी बरकरार है कि ऐसे विज्ञापन के चलते जो गरीब छात्र दो हजार रुपये खर्च करने की हिम्मत नहीं जुटा सके, उनके लिए एक स्वर्णिम अवसर की भरपाई कौन करेगा। उल्लेखनीय है कि शिक्षक भर्ती को भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की भेंट चढ़ाने के लिए ही ऐसा विज्ञापन बनाया गया था कि वह इस विवि के विधि संकाय के शिक्षकों की भी समझ से परे था। विवि प्रशासन को पूरा विश्वास था कि 2009 की 31 दिसंबर से पूर्व पीएचडी करने वालों को, जिन्हें नेट से छूट यूजीसी ने दी थी, को फार्म भरने देना उनकी दया पर निर्भर है। फार्म जमा होने की अंतिम तिथि के कुछ दिन बाद रमेश यादव की दायर याचिका पर न्यायालय ने स्पष्ट किया कि देश में उच्च शिक्षा के संबंध में गाइड लाइन देने वाली सबसे बड़ी संस्था यूजीसी है न कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय। अब जिन छात्रों ने दो हजार का जुआ खेला वे तो अब सुरक्षित हैं, लेकिन जो गरीब छात्र दो हजार का फार्म नहीं भर सके, वे अब सदमे में हैं। सचाई तो यह है कि शिक्षक भर्ती के 17000 फार्म में ऐसे अभ्यर्थी 5000 के करीब हैं। उच्च न्यायालय का निर्णय पहले आया होता तो यह संख्या कम से कम दस हजार होती। बुधवार को हुई एकेडमिक काउंसिल की बैठक में विवि प्रशासन ने विज्ञापन की भाषा को सीधा करने संबंधी प्रस्ताव पास करा लिया है। अब ऐसे छात्र जो केवल उक्त तिथि से पहले के पीएचडी हैं, वे अपने गाइड और रजिस्ट्रार का एक पत्र लगाकर इस भर्ती प्रक्रिया में वैध रूप से शामिल हो सकते हैं, उनकी छंटनी तो कम से कम नहीं की जा सकती। पर जो गरीब पीएचडी धारक छात्र इसमें भाग लेने से वंचित रह गए उनके संबंध में डॉ. रमेश यादव कहते हैं कि कई गरीब छात्र विवि की मनमानी का शिकार हो गए। अब इनके सामने न्यायालय ही एक चारा बचता है जहां ये विज्ञापन की भाषा को चुनौती देकर पुनर्विज्ञापन की मांग कर सकते हैं। source-dainik jagran 18/5/12
इलाहाबाद : शिक्षक भर्ती मामले में विवि प्रशासन ने उच्च न्यायालय के निर्देश के बाद भले ही अपनी रही सही इज्जत बचाने के लिए अपने विज्ञापन में संशोधन का प्रस्ताव पारित करवा लिया हो, लेकिन एक यक्ष प्रश्न तो अभी भी बरकरार है कि ऐसे विज्ञापन के चलते जो गरीब छात्र दो हजार रुपये खर्च करने की हिम्मत नहीं जुटा सके, उनके लिए एक स्वर्णिम अवसर की भरपाई कौन करेगा। उल्लेखनीय है कि शिक्षक भर्ती को भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की भेंट चढ़ाने के लिए ही ऐसा विज्ञापन बनाया गया था कि वह इस विवि के विधि संकाय के शिक्षकों की भी समझ से परे था। विवि प्रशासन को पूरा विश्वास था कि 2009 की 31 दिसंबर से पूर्व पीएचडी करने वालों को, जिन्हें नेट से छूट यूजीसी ने दी थी, को फार्म भरने देना उनकी दया पर निर्भर है। फार्म जमा होने की अंतिम तिथि के कुछ दिन बाद रमेश यादव की दायर याचिका पर न्यायालय ने स्पष्ट किया कि देश में उच्च शिक्षा के संबंध में गाइड लाइन देने वाली सबसे बड़ी संस्था यूजीसी है न कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय। अब जिन छात्रों ने दो हजार का जुआ खेला वे तो अब सुरक्षित हैं, लेकिन जो गरीब छात्र दो हजार का फार्म नहीं भर सके, वे अब सदमे में हैं। सचाई तो यह है कि शिक्षक भर्ती के 17000 फार्म में ऐसे अभ्यर्थी 5000 के करीब हैं। उच्च न्यायालय का निर्णय पहले आया होता तो यह संख्या कम से कम दस हजार होती। बुधवार को हुई एकेडमिक काउंसिल की बैठक में विवि प्रशासन ने विज्ञापन की भाषा को सीधा करने संबंधी प्रस्ताव पास करा लिया है। अब ऐसे छात्र जो केवल उक्त तिथि से पहले के पीएचडी हैं, वे अपने गाइड और रजिस्ट्रार का एक पत्र लगाकर इस भर्ती प्रक्रिया में वैध रूप से शामिल हो सकते हैं, उनकी छंटनी तो कम से कम नहीं की जा सकती। पर जो गरीब पीएचडी धारक छात्र इसमें भाग लेने से वंचित रह गए उनके संबंध में डॉ. रमेश यादव कहते हैं कि कई गरीब छात्र विवि की मनमानी का शिकार हो गए। अब इनके सामने न्यायालय ही एक चारा बचता है जहां ये विज्ञापन की भाषा को चुनौती देकर पुनर्विज्ञापन की मांग कर सकते हैं। source-dainik jagran 18/5/12